ভোলাও পথ হে নাবিক।
জয়শংকর প্রসাদ
ভুলায়ে পথ সেথা নিয়ে চল মোরে
হে মোর নাবিক, ধীরে ধীরে।
সিন্ধু-লহরী যেথা একান্তে
অসীম গগন শ্রবণ-প্রান্তে,
অকপট প্রেমে আপনা প্রকাশে
ত্যজি অবনীর কোলাহলে রে!
যেথা সন্ধ্যার মত জীবনের কায়া
ঘেরি নীল অঞ্জনসম ছায়া
আপনা উজাড়ি দেয় ছড়াইয়া
তারকা লক্ষ-সহস্রে।।
যে মহাগম্ভীর মধুর ছায়ায়
বিশ্ব চিত্রপট সচল মায়ায়,
এক হয়ে যায় স্রষ্টা-সৃষ্টি
দুখে-সুখে হয় সমান দৃষ্টি
শ্রম ও বিরাম মেলে যে ক্ষিতিজে,
পরমানন্দে চলিয়াছে সৃজে
উজারি নয়ন ঊষা নিজ তেজে
বিখরিছে জ্যোতিপুঞ্জেরে।।
शक्ति और क्षमा / रामधारी सिंह "दिनकर"
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
"শক্তি ও ক্ষমা"
রামধারী সিংহ 'দিনকর'
ক্ষমা, দয়া, তপ, ত্যাগ, মনোবল
সকলই করেছ প্রয়োগ তবু,
মৃগরাজ সুযোধনে হে ধর্ম,
হারাতে বল কি পেরেছ কভু?
রিপুদলে দিয়ে ক্ষমার ভিক্ষা
যত অবনত তুমি হয়েছ,
দুষ্ট কৌরব সমুখে সতত
ভীরু অপবাদ শুধু সয়েছ।
অন্যায়-অত্যাচার সহিয়া
বল দেখি কিবা পেয়েছ ফল-
পৌরুষ-মহিমা করেছ নষ্ট
হয়ে অতিশয় মৃদু, কোমল!
ক্ষমা শোভে সদা সেই ভুজঙ্গে
যার দশনেতে আছে গরল
তার কিবা মান যে বিষ-বিহীন
নত, নিস্তেজ কিংবা সরল?
তিন দিন ধরে রঘুপতি রাম
রয়েছেন বসে সিন্ধুতীরে
'পথ দাও মোরে'- বলে করজোড়ে
অনুনয় করে সমুদ্রেরে
নিষ্ফল যবে সব প্রার্থনা,
সমুদ্র-দেব রহে নিশ্চল
অধীর রাঘব, বাণের অগ্রে
জ্বলে পৌরুষ-দৃপ্ত অনল।
সাগর দেবতা করজোড়ে আসি
পড়েন রামের চরণ ধরে
'ত্রাহি নাথ', কয়ে শরণ নিলেন,
পাতেন পৃষ্ঠ বন্ধন তরে
বিনয়ের তেজে শরের দীপ্তি
এ কথা রটিল তিন ভুবনে,
সন্ধি? আত্মসমর্পণের
নামান্তর যে শক্তিহীনের!
সহনশীলতা, ক্ষমা ও দয়ার
তখনই জগতে কদর হয়,
পশ্চাতে তার বলের দর্প
দৃপ্ত যখন দীপ্তিময়!
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