राम गरुड़ के बच्चे
राम गरुड़ के बच्चे, दिलके तो हैं सच्चे,
पर हँसने की बात करो तो खा जायेंगे कच्चे!
रहते हैं वे डरे, मन में शंका भरे
गलती से भी हँस दे कोई, बेशक जाएं मरे।
डरते हैं सोने से, बात करें अपने से
अपने आप को धमकाते हैं, मारेंगे हँसने से!
जंगल में न जाएं- मीठे फल न खाएं
चलती पवन के गुदगुदाहट कहीं न दे हँसाये!
बेचैनी है दिल में, आसमान के कोने में
हलके बादल हँसी फैलाये, डरते मन ही मन में।
पेड़-पौधों के तले जुगनू जगमग जले
हॅंसने को तो जी ललचाये, मुश्किल से ही संभले।
क्या तुझे है खबर, बेवजह हँस हँस कर
रामगरुड़ को चोट पहुंचाता, थोड़ा तो समझा कर!
रामगरुड़ का महल- आंसू से धुले हर पल,
हँसना तो दूर, पास न आए हलकी हवा की हलचल!!
बड़ी मुश्किल
सब लिखे हैं इस किताब में दुनिया की सारी बातें
सरकारी किन दफ्तर में कौन अफ़सर क्या भाव खाते।
चटनी कैसे बनायीं जाती, कैसे बनाते हैं पुलाव
घरेलु सब नुस्खों के दिए गए सारे सुझाव।
साबुन स्याही दन्त-मंजन बनाने के सारे कायदे
पूजा और त्यौहार सभी पंचांग के जितने फ़ायदे।
सभी तो हैं, फिर भी देखो, कहीं भी न है लिखा
पीछे पड़ा है पगला सांड, उससे बचने का तरीका!
खिचड़ी
हंस तो था, साही भी, व्याकरण मानूं ना
कैसे जुड़े 'हंसाही' बन गए जानूं ना।
बक बोला ए कछुआ, वाह रे क्या फुर्ति,
लाजवाब हमारी यह 'बकछुआ' मूर्ति।
तोती यानी सुग्गि बोली ओ गिरगिट भैया,
कीड़े छोडो मिर्ची खाओ बदलो रवैया।
जिराफ़ न चाहे अब यहाँ-वंहा घूमने
फतिंगा संग मिला वह भी लगा उड़ने।
गाय कहे हाय राम, रोग मुझे क्या लगा?
मेरे पीठ चढ़े क्यों बेवकूफ यह मुर्गा?
'हस्तीमि' देख हाल, तिमि को चाहिए जल
हाथी कहे यही मौका, चल चलें जंगल।
सिंह के सींग न थे, कष्ट था मन में
हिरन से नाता जोड़ा सींग मिले क्षण में।
नीचे के खिचड़ी जानवर -
"हंसाही" "बकछुआ"
"सुग्गिरगिट" "मुर्गाय" "हस्तीमि" "सिंहिरन" "जिराफ़तिंगा"
मूंछ चोरी
हेड ऑफिस का बड़ा बाबू आदमी शांत थे बड़े
किसको था मालूम कि उनके दिमाग थे ऐसे बिगड़े?
मस्ती में थे खुश मिजाज बैठे कुर्सी के ऊपर
अकेले में ही यूँ अचानक बिगड़ा क्या उनका सर?
हकचकाके हाथ-पांव फेंके ऐसे गए अखड़
चिल्ला उठे "मैं मर गया रे, कोई तो मुझे पकड़।"
सुनकर कोई बुलाये पोलिस, कोई चीखे डाक्टर
कोई कहे, संभालके पकड़ो, कहीं न भागे डंसकर
व्यस्त सभी इधर-उधर करते हैं दौड़ादौड़ी,
बाबू बोले, "ओ भाई रे मेरी मूछें गयी हैं चोरी!"
मूछें खोयी हैं? अजीब बात, ऐसा भी होता सचमुच?
मूछें तो बस वैसी ही है कम तो नहीं हुई कुछ!
सभी उन्हें कितना समझाए सामने पकड़े आइना
मूछें नहीं होती हैं चोरी, कभी ऐसी हुई ना।
गुस्से से लाल तमतमाते गाल बाबू ऐसे भड़के-
"भरोसा नहीं किसी पे मुझको हाल पता है सबके।
झाड़ू जैसी गन्दी भद्दी कूड़ा जैसी कुचैली
श्यामलाल के दूधवाले सी बदसूरत और मैली!
ये मूछें जो मेरी बताया जान लूंगा एक-एक की।"
यह कहकर बाबू ने झट जुर्माने लगाए सब की।
खाता खोलकर लिख दिया गुस्से से वेहद तड़पे
"किसी की भी भलाई न करना, चढ़ जाते सब सर पे।
ऑफिस में सब गधे भरे हैं, सर के अंदर गोबर
मूछ की जोड़ी कहाँ खोयी है कोई न जाने ख़बर!
जी करता इन बदमाशों की मूछें पकड़ उखाडूँ
बेवकूफों के भेजे में उस्तरा चलाकर फाड़ूं।
मूछ को बोले तेरी-मेरी, ये बेचे कौन दुकान!
मूछ की मैं या मूछ की तू, है हमारी पहचान।"
हुक्का-मुहा हकला निवास था बँगला
चेहरा उतरा तेरा काहे रे?
हंसी मुंह से उड़ा है क्यों ऐसा हुआ है
कोई तो मुझे समझाओ रे ।
श्यामादास मामा था, नशेड़ी अफीम का
और कोई न उसका जग में !
अकेले इसलिए, मुंह को लटकाये
बैठा है आंसू भरे आँखों में ।
थप थप पाओं से नाचता था मजे से
गोल-मोल गाल भरी फुर्ती
गाता था वह सारादिन, सारेगामा टिमटिम
मस्ती से गदगद मूर्ति।
आज ही के दोपहर बैठा था छत पर
खा रहा था कच्चा केला ,
अचानक हुआ क्या , मामा मर गया क्या
या तो फिर पैर ही फिसला?
हुक्का-मुहा कहे भाई, ऐसा कुछ नहीं है
देख ना रे कैसी ये उलझन
मक्खियां मारने के तरीके ढूंढने
सोच में ही बीत जाये सारादिन।
दाहिने जो बैठे इस दुम झपटे
मक्खी को मारूं मैं फटाफट
बाएं कोई आये भी , न जीतने पायेगी
मारे उसे यह पूंछ झटपट।
पर भाई कहो रे बीचोबीच ठहरे
कोई पाजी, मारूं उसे कैसे ?
सोचो तो क्या मुसीबत लूँ फिर कौनसा पथ
दो से ज्यादा पूंछ पाऊँ कहाँ से?
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