Saturday, July 25, 2015

New: Translated rhyme- Bengali to Hindi

New: Translated rhyme- Bengali to Hindi

"मान न मान"
सुकुमार रॉय  

सुनरे भैया गांव में मेरे ऐसा आदमी दीखा,
खाते समय वह दाल-चावल को मुंह के अंदर फेंका।   
सुना है उसे भूख भी लगती दिनभर जो न खाएं,  
आँखें बंद हो अपने आप ही नींद जैसे आये।  
चलते समय दो पैर उसके पड़ते हैं धरती पे, 
आँखों से वह देखता है सब, सुनता है कानों से।
मान न मान, वह सोता है सर सिरहाने पे रखके 
 ऐसा भी होता है क्या भला, चल आते हैं देखके!   

(मेरा अनुवाद, मूल बंगाली से)

"আরে ছি ছি রাম রাম কলকেতা শহরে
লাল ধুতি পরে মুদি তিন হাত বহরে।
মখমলে জামা গায় ঝকঝকে টোপরে,
খায় দায় গান গায় রাস্তার ওপরে।"

(সুকুমার রায়)


अरे छी छी राम राम का कहूँ रे भैया
कोलकाता जाके देखा हमार रमैया ।
मख़मली लाल धोती-कुर्ता टोपी सर पे
खाए-पिए-नाचे-गाये सड़कवा के मोड़ पे!


"কহ ভাই কহরে, আঁকাচোরা শহরে
বদ্যিরা কেন কেউ আলুভাতে খায় না?
লেখা আছে কাগজে, আলু খেলে মগজে
ঘিলু যায় ভেস্তিয়ে, বুদ্ধি গজায় না।"
(সুকুমার রায়)


जानते हो मेरे भाई, जाके देखा मुंबई
वहां के हकीम कोई आलू नहीं खाता है!
लिखा है किताबों में, आलू से खोपड़ी में
दिमाग न उपजे रे, भेजा सुख जाता है ।



क्या कहूं मैं गया था हुगली
किसी से ना यह कहना,
दीखा मुझे तीन ऐसे सूअर
टोपी न किसीने पहना!



खामखा कुत्ते क्यों चिल्लाएं रात भर-
दांत के कीड़े रहे न टूटे दांत पर?
किसकी गलती से है पृथ्वी के दबे सर?
चल यार सोचते हैं छाओं में बैठकर !
(सुकुमार रॉय)
Original in Bengali:
'কেন সব কুকুরগুলো খামখা চেঁচায় রাতে-
কেন বল দাঁতের পোকা থাকেনা ফোক্‌লা দাঁতে?
পৃথিবীর চ্যাপ্টা মাথা কেন, সে কাদের দোষে?
এসো ভাই চিন্তা করি দুজনে ছায়ায় বসে ।'


पता क्या कह गया सीताराम मेहता-
आसमाँ मंहके जैसा खट्टा सा रायता ।
खटाई रहती नहीं, होने पर वर्षा,
चखकर देखा तब मीठा शक्कर सा ।


ए बकरी का बच्चा,
तू उडने काहे को चला?
पंख कहाँ रे तेरे -
कूदता-फिरता क्यों भला !


नन्द घोष की काली गाय भाग के गयी कहाँ-
गाँव-मुहल्ला नन्द घूमे, खोजता सारा जहाँ।
आधी रात को बेखबर
लौट अधमरा सा थककर,
अपने आंगन पहुँचके देखा गाय सोयी है वहाँ।


आसमान में सात रंगों के इन्द्रधनुष खिले बेजोड़
कितने लोग देखने को आये सारे काम काज को छोड़.
एक था बुड्ढा भला किसीका न देखे वह आदत से-
कहने लगा- 'रंग कच्चा है, टिकाऊ नहीं, पूछो मुझसे!'

जंगला गांव का पगला बुड्ढा मुझसे आकर उलझे,
ढाई बिघाभर समुन्दर में कटहल कितने उपजे?
मैंने भी कहा उसी अंदाज़ में सच कहूँ मैं कितने-
एक एकड़ मूली के खेत में झींगा फले हैं जितने।

आंगन में रक्खा था डब्बा, खीर था उसमें पड़ा,
कौए ने उसके लिए बूढे से जोर का लड़ा। 
जीत लड़ाई खुशी से कौए ने मुड़कर देखा क्या-
जाने कब खीर साफ कर गयी छोटी सी एक चिड़िया।   

बुड्ढे तुम हो आदमी अच्छे,
दिल से भी लगते हो सच्चे,
फिर भी क्यों तुम मुझे पसन्द आते नहीं?
कारण इसका मुझे क्या पता
सोचूं भी तो समझ न आता 
वजह न कोई तो भी दिल भाते नहीं।

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